संवरना चाहती हूँ
संवारती आई हूँ सदियों से
घर को ,अपनों को सुघड़ता से
निहारती आई हूँ दर्पण में
अपने आपको सदियों से
बन निर्झरिणी ,ममता-स्नेह-समर्पण की
निभा कर्तव्य अपने घर के -बाहर के
छूकर उत्तुंग-हिम-शिखर
असीम अन्तरिक्ष में कर अपने
अस्तित्व के हस्ताक्षर
हर चुनोती स्वीकार करना चाहती हूँ
सुसंस्कारों का सृजन करती
चूंकि सृजन के सही अर्थ हूँ जानती
काटकर सलाखें उपेक्षाओं की
और बेड़ियाँ विषमताओं की
स्वछंद नहीं स्वतंत्रता चाहती हूँ
निहारती आई हूँ सदियों से ,
जिस दर्पण में अपने आपको
अब अपने उस दर्पण को बदलना चाहती हूँ
बिखरी अलकों को अपनी अब सुलझाना चाहती हूँ
अब में भी संवरना चाहती हूँ ***************
अंतर्राष्ट्रीय महिला-दिवस की शुभ कामनाओं के साथ ..............
अदितिपूनम *************
घर को ,अपनों को सुघड़ता से
निहारती आई हूँ दर्पण में
अपने आपको सदियों से
बन निर्झरिणी ,ममता-स्नेह-समर्पण की
निभा कर्तव्य अपने घर के -बाहर के
छूकर उत्तुंग-हिम-शिखर
असीम अन्तरिक्ष में कर अपने
अस्तित्व के हस्ताक्षर
हर चुनोती स्वीकार करना चाहती हूँ
सुसंस्कारों का सृजन करती
चूंकि सृजन के सही अर्थ हूँ जानती
काटकर सलाखें उपेक्षाओं की
और बेड़ियाँ विषमताओं की
स्वछंद नहीं स्वतंत्रता चाहती हूँ
निहारती आई हूँ सदियों से ,
जिस दर्पण में अपने आपको
अब अपने उस दर्पण को बदलना चाहती हूँ
बिखरी अलकों को अपनी अब सुलझाना चाहती हूँ
अब में भी संवरना चाहती हूँ ***************
अंतर्राष्ट्रीय महिला-दिवस की शुभ कामनाओं के साथ ..............
अदितिपूनम *************
सुंदर भाव...आपको भी बहुत बहुत शुभकामनायें..
ReplyDeleteधन्यवाद...........आभार अनिता जी ........
Deleteबहुत सुंदर और प्यारे से भाव.......... बेहतरीन
ReplyDelete!!
धन्यवाद...........आभार मुकेश जी .......
Deleteबहुत सुंदर सृजन...!
ReplyDeleteRECENT POST - पुरानी होली.
धन्यवाद.....आभार आपका.........
Deleteखूबसूरत भाव... सुंदर शब्दों से पिरोई गयी मनःस्थिति... अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएँ …
ReplyDeleteधन्यवाद.......आभार आपका.........
Deleteसुन्दर भाव....
ReplyDeleteधन्यवाद............आभार आपका.......
Deleteबहुत पसंद आई रचना. बदलते युग में आगे के दिनों के आसान होने की उम्मीद है. जो परिवर्तन हो रहा है उससे आशा तो जरूर बंधी है.
ReplyDeleteधन्यवाद......आभार....
Deleteमहोदय...ब्लॉग पर आने के लिए...
बहुत ही खुबसूरत भाव के साथ सुन्दर प्रस्तुति, आभार।
ReplyDeleteधन्यवाद.......आभार महोदय....
Deleteअब अपने उस दर्पण को बदलना चाहती हूँ
ReplyDeleteबिखरी अलकों को अपनी अब सुलझाना चाहती हूँ
अब में भी संवरना चाहती हूँ
सुंदरम मनोहरम !बढ़िया भाव प्रबंध और अर्थ सार ***************
बहुत-२ धन्यवाद महोदय.....
Deleteदर्पण को अब बदलने ही चाहिए... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteसुसंस्कारों का सृजन करती
ReplyDeleteचूंकि सृजन के सही अर्थ हूँ जानती
काटकर सलाखें उपेक्षाओं की
और बेड़ियाँ विषमताओं की
स्वछंदता नहीं स्वतंत्रता चाहती हूँ
निहारती आई हूँ सदियों से ,
जिस दर्पण में अपने आपको
अब अपने उस दर्पण को बदलना चाहती हूँ
सुन्दर काव्य, रूपकत्व का ज़वाब नहीं शानदार अप्रतिम रचना
(स्वच्छंद )
आभार...धन्यवाद आपका .....सही कर दिया है ..स्वछन्द ...मार्गदर्शन की हमेशा आवश्यकता होगी
Deleteआपकी टिप्पणियाँ हमारी उत्प्रेरक धरोहर बनती हैं।
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति है बधाई !!
ReplyDeleteसुसंस्कारों का सृजन करती
ReplyDeleteचूंकि सृजन के सही अर्थ हूँ जानती
काटकर सलाखें उपेक्षाओं की
और बेड़ियाँ विषमताओं की
स्वछंदता नहीं स्वतंत्रता चाहती हूँ
निहारती आई हूँ सदियों से ,
जिस दर्पण में अपने आपको
अब अपने उस दर्पण को बदलना चाहती हूँ
सशक्त भाव लिये .... उत्कृष्ट अभिव्यक्ति
सादर प्रणाम |
ReplyDeleteबदल डालिए सदियो पुराने दर्पण को
होली की हार्दिक शुभकामनाये|
धन्यवाद ,अजय जी...ब्लॉग पर आने का शुक्रिया
Deleteधन्यवाद ,,,आभार महोदय मुझे चर्चा में बनाए रखने के लिए....
ReplyDeleteहोली की हार्दिक शुभ कामनाएं आपको भी....
वाह...बहुत सुन्दर और सामयिक पोस्ट...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@चुनाव का मौसम