मंजरियों का मुकुट शीश धर निकले हैं ऋतुराज
दुल्हन प्रकृति संवर गई है कर सोलह-श्रृंगार
अमलताश के पहने झुमके ,कुन्दकली के हार
लज्जा से पीली भई धरा वसंत निहार
बोराई सी चल रही ,फागुनी मंद बयार
अमराई में कूक रही है कोयल की शहनाई
ओर नहीं है छोर नहीं है ,सरसों है पियराई
लाल पताका फहराते ,पुलकित हुए पलाश
बिखर गये है दिग दिगंत में ,रंग-सुगंध-अनुराग*******